Friday, February 26, 2010

एक कहानी[कड़ी ५

नीम वाली छत पे अक्सर सन्नो अपनी सहेली के साथ अष्टा -चंगा यह खेल खूब खेलती थी । आज भी वो इसी नीम वाली छत पर अपनी सहेली शान्ति के साथ इसी खेल को खेलने मे व्यस्त हैं । छत पर गिरती नीम की शाखाओं के नीचे बैठकर खेलने की बात ही कुछ और है । नीम के पेड़ से गुजरती हुई ठंडी -ठंडी हवाएं, और नीम की छाँव मे, खेलते हुए समय का होश कहाँ रहता हैं ।

ठक,ठक करती हुई जब नानी की छड़ी की आवाज कानो मे पड़ी । तभी ध्यान आया की नानी ने तो उसे पंडितजी के यहाँ कल की पूजा के लिए बुलावा देने के लिए भेजा था । ''अरे ! तू यहाँ क्या कर रही है छोरी " नानी ने कहा । नानी को अपने सामने पाकर , एक बार को वोह घबरा गयी । "नानी मे अभी जाकर पंडितजी को बुलावा दे आती हूँ" उसने कहा । अपनी सहेली का हाथ थामे उसे भी पंडितजी के यहाँ ले गयी । "यह छोरी खेल मे इतनी बावली हो जावे की किसी बात का ध्यान ही ना रहवे " मन ही मन बुदबुदाते हुए नानी वापिस सीढियां उतरने लगी ।

सुबह से ही बड़ी चहल - पहल है । रसोई मे स्वादिष्ट पकवान बन रहे है । छत पर पड़ी चारपाई पर लेटी -लेटी अपने सपनो की दुनिया मे खोयी सन्नो को जैसे ही पकवान की खुशबू नाक मे पड़ी दौड़कर वो रसोई -घर के सामने जा खड़ी हुई , और चहकते हुए उसने नानी से पुछा -" नानी कौन मेहमान आने वाला है , जो इतनी सारी बढ़िया खाने की चीजे बना रही हो "। नानी ने होले से मुस्कुरा कर कहा -"आज तेरे नानाजी का श्राद्ध है , इसीलिए तो कल पंडितजी के बुलावा भेजा था "। आज नानी के चेहरे की झुरियां और अधिक गहरी नज़र आ रही थी , और चेहरे पर उदासी की एक हल्की परत नज़र आ रही थी । नानी का चेहरा आज इतना उतरा हुआ क्यूँ है ? यह सवाल बार -बार वो अपने आप से पूछ रही थी । नानी बोली - पंडितजी आते ही होंगे जा जल्दी स्नान करके आजा । क्रमश

Saturday, February 13, 2010

शिवरात्रि

ब्लॉगर की दुनिया के दोस्तों को महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाए । वैसे मैं एक दिन देर से शुभकामनाए दे रही हु , मैं घर पर नहीं थी। तो देर से ही सही शुभकामनाए स्वीकार करे । दो साल पहले मैंने भगवान् शिव पर एक छोटा सा भजन लिखा था। जो अब तक मेरी डायरी के पन्नो तक ही सिमित था। आज आप सभी के साथ बांटना चाहती हु।


जय शिव शंकर
जीवन सार्थक करे शिव का नाम ।
शिव चरण बिन कहाँ विश्राम ॥
जीवन सार्थक ....
हर -हर महादेव नाम का कर स्नान ।
शिव चरण बिन कहाँ विश्राम ॥
जीवन सार्थक ....

डमरू की डम डम में शम्भो नाम ।
शिव चरण बिन कहाँ विश्राम ॥
जीवन सार्थक ....

गंगा की धार बोले शंकर नाम ।
शिव चरण बिन कहाँ विश्राम ॥
जीवन सार्थक ...
तुम्ही गुरु तुम्ही परमपिता ।
शिव चरण बिन कहाँ विश्राम ॥
जीवन सार्थक ....
ओंकार नाम से गूंजे सारा संसार ।
शिव चरण बिन कहाँ विश्राम ॥
जीवन सार्थक ....
तीन लोक में तेरी जय -जयकार ।
शिव चरण बिन कहाँ विश्राम॥
जीवन सार्थक करे शिव का नाम
शिव चरण बिन कहाँ विश्राम ॥

Thursday, February 11, 2010

एक कहानी [कड़ी ४ ]

रात के आठ बज रहे थे । नानी और माँ रसोई में थी। दरवाजे पर दस्तक हुई । नानी ने कहा -लगता हे ओंकार आगया दूकान से । ओंकार गुगी के मामाजी ,जिनसे नानी की लाडली डरा करती थी । जब मामाजी घर में दाखिल हुए, तो वोह गलियारे में बैठी ठंडी -ठंडी हवा का आनंद ले रही थी । दिन चाहे कितने ही गर्म रहे , लेकिन राते ठंडी रहती है यहाँ की । माँ ने आवाज लगायी - सन्नो आ बेटा ,नीचे आ , आके मामा के हाथ -पैर धुलवा । सन्नो जी हाँ यही तो उसका नाम है , इसी नाम से वह अपने ननिहाल में और अपने दादा दादी के यहाँ जानी जाती है । सन्नो आज बहुत थकी हुई हे , बन्दर महाराज ने आज उससे इतनी दौड़ -धुप करवा दी की अब उससे एक कदम भी न चला जाएगा । माँ आवाज लगाती रही ,पर उसने सुना-अनसुना कर दिया और बैठे -बैठे आकाश में टिमटिमाते हुए तारो को गिनने लगी । अचानक एक कर्कश -कठोर आवाज उसके कानो को चीरती हुए उसे अन्दर तक हिला गयी । उसका बदन डर से काँप रहा था । यह तो ओंकार मामाजी की आवाज थी । सन्नो नीचे आ , आखिर सन्नो को अपना मन मारकर नीचे जाना ही पड़ा ।
क्या करती रहती है सारा दिन, कभी कुछ काम भी कर लिया कर । मामाजी ने सन्नो को देखते ही पहला सवाल यही किया । नानी और माँ दोनों चुपचाप एक कोने में खडी सन्नो को देख रही थी । सन्नो ने मुड़कर दोनों की तरफ देखा पर नानी और माँ भी मामाजी के आगे कुछ नहीं बोल पाती थी । खड़े -खड़े क्या देख रही है चल मेरे हाथ पैर धुलवा । अपने आँख में आंसू को छुपाती हुई,मामा के पैर धुलवाने के लिए जल बाल्टी में भरने लगी । जाते - जाते मामाजी एक और फरमान सुना गए - सन्नो से बोलो मेरे लिए दो जवार की रोटी बना कर रखे में कपडे बदल कर आता हु । नानी बोली - बेटा में बना देती हूँ । लेकिन मामाजी की जिद के आगे किसी की नहीं चलती । आखिरकार सन्नो को रोटी बनानी ही पड़ी । उसे कहा कुछ बनाना आता था । पर जैसे -तैसे उसने रोटिया बनायीं । रोटिया बनाते वक़्त हाथो की उंगलियाँ गरम तवे से चीठ गयी । जब सब का खाना हो गया और सारा रसोई का काम सलट गया तो माँ उसे कमरे में ले गयी और उसकी जली उँगलियों पर मलहम लगाई । माँ की गोद में सर रखकर वह सो गयी

Wednesday, February 10, 2010

एक कहानी [कड़ी ३ ]

जब जब छुटियाँ होती थी नानी के यहाँ आने की अनुभूति कुछ और ही होती थी । गर्मी की एक दुपहर मे वोह अपनी नानी के साथ उनके कमरे मे थी । नानी उसके बालो मे तेल लगा रही थी । नानी ने कहा - तेरे इतने अच्छे केश हैं तेल लगाया कर , नहीं तो छोटी उम्रर मे मेरी तरह बाल सफ़ेद हो जायेंगे । उसने कहा - अरे वाह नानी तब तो बड़ा मजा आएगा मेरे बाल भी तुम्हारी तरह चांदी की तरह चमकीले हो जायेंगे । कमरे मे बैठी नानी, उसकी माँ सब हँसने लगे । सबको हँसते देखकर वोह भी खिलखिलाकर हँस पड़ी । उसकी हँसी चारो और गूंज उठी । माँ उसको हँसता देख भगवान् से बस एक ही प्रार्थना करती की ,हे ईश्वर मेरी बेटी सदा युही मुस्कुराती रहे । अचानक हुए शोर से उसकी माँ एकदम चौंक पड़ी । सब एक बन्दर को भागने की कोशिश कर रहे थे । कभी वो बन्दर नानी के कपाट पर चढ़ जाता तो कभी कमरे के एक कोने में टंगे हुए झूले पर चढ़ जाता और मजे से उस पर झूलने लगता । नानी ने एक डंडा उठाया और लगी बन्दर को भगाने । बन्दर महाराज खी-खी करते हुए नानी को चिढा रहे थे। आखिर बहुत कोशिशो के बाद बन्दर को भगाया गया । लेकिन जाते - जाते बन्दर नानी का प्यारा आईना ले गया ,जो एक चांदी की फ्रेम में जड़ा हुआ था नानी को इस बात का दुःख था की यह उनके पति की उनको आखरी भेंट थी । उसके थोड़े दिनों बाद ही उनका स्वर्गवास हो गया था । शाम ढलने लगी थी सूरज की लालिमा से आसमान सजने लगा था । नानी कमरे में बिखरे सामन को समेटने लगी

Tuesday, February 2, 2010

एक khwahish

एक कहानी [कड़ी २ ]

बैलगाड़ी धीरे धीरे पहुंच रही थी अपनी मंजिल की और । उसका मन यह तय नहीं कर पा रहा था की पहुचते ही उसे क्या करना है । क्या वोह झट से नानी के गले लगे या दौड़कर छत पर जाए और कच्ची -पक्की इमली खाए । दिल एक ख्वाहिश अनेक । आखिर नानी की हवेली आ गयी । वोह झट से बैलगाड़ी से कूदी ,और सब से पहले नानी के लिपट गयी । नानी ने बड़े प्यार से उसके सर पर हाथ फेरा और बोली -"आ गयी मेरी गुगी "। गुगी उसका नाम नहीं था , वहा के लोग प्यार से इसी तरह से अपनी बच्चियों को पुकारते थे ।
अगले दिन मंदिर जाना था क्यूंकि उस दिन पूर्णिमा थी और वोह पूर्णिमा का व्रत करती थी । नानी और माँ के साथ वोह मंदिर जाने के लिए तैयार हो रही थी । मंदिर काली सिंध नदी के किनारे स्थित था । मंदिर पहुंच कर भगवान् के दर्शन किये और पूजा अर्चना की । उसने मंदिर की खिड़की से झाँक कर देखा खिड़की से कालीसिंध का नज़ारा देखते ही बनता था । नदी का वेग बहुत तेज था लगता था मानो सब कुछ नदी के तेज वेग में समा जायेगा। नानी के मुंह से सुना था कई साल पहले कालीसिंध नदी मैं से सोने का हाथ निकलता था और वहां के रजा उस हाथ की पूजा करते थे । पूजा होने के बाद हाथ वापिस नदी के अन्दर चला जाता था । उसका मुहँ आश्चर्य से खुला रह जाता वोह पूछती -"क्या सच मैं नानी तुमने उस सोने के हाथ को देखा हैं ?"। नानी ने कहा -"अरे मैंने नहीं देखा मैंने तो लोगोके मुहँ से सुना है "।
नानी ने आज बहुत स्वादिष्ट भोजन बनाया क्यूंकि आज उनकी गुगी ने व्रत जो रखा था । उसने पेट भर खाया । नानी उसकी मनुहार कर रही थी। नानी को लग रहा था उनकी गुगी का पेट भरा नहीं है । उसकी थाली मैं और भोजन परोस रही थी । उसने कहा -"आपको खिलाना है तो वोह चीज खिलाओ "। उसने एक ऐसी चीज का नाम बताया जो नानी ने बनाया ही नहीं था । उसने इस लिए ऐसी चीज का नाम बोला था ताकि और खाना खाने से पीछा छुट सके । पर नानी कहाँ हार मानने वाली थे उन्होंने उसकी फरमाइश पूरी की । लेकिन यह उसका बहाना था । उसे कुछ खाना तो था नहीं । वोह थाली से उठ गयी और बहार अपनी सहेलियों के साथ खेलने चली गयी । नानी इधर उसको पुकारती रह गयी ।