Monday, December 27, 2010

जिंदगी के आईने से,
हटाके वक़्त की गर्त ।
देखा जो हमने सामने,
अपने बीते लम्हों का अक्स ।
चाहा नहीं था जिसे देखना,
आगया वो हमें नज़र।
दरकते हुए कई ख्वाबो का,
एक खामोश सा मंजर।

Tuesday, November 30, 2010

उगता सूरज

मखमली घास सा उगता सूरज।
माँ के कोमल स्पर्श जैसा उगता सूरज।
मासूम सी मुस्कान बिखेरता उगता सूरज ।
ऊँगली पकड़ नयी राह दिखाता उगता सूरज ।
चुनोतियों के पथ ले जाता उगता सूरज ।
सफलता की मंजिल पर पहुंचाता उगता सूरज ।

Tuesday, November 16, 2010

घोटाले

आदर्शवादी होने का दम हैं भरते,
आदर्शो का ढोल हैं पीटते।
किन आदर्शो की राह पर चलकर,
कैसे -कैसे आदर्श घोटाले करते।
खेल धोखेधडी और स्वार्थ का खेलते,
खेल,खेल की भावनाओ से खेलते।
अब खेल होता हैं खत्म तुम्हारा,
अब बेकार की सफाई , क्यूँ देते फिरते।

Monday, November 8, 2010

संघर्ष

संघर्ष भट्टी एक आग की,
जिसमे हम खुद को तपाया करते हैं।
तप कर इस अग्नि मे,
हम कुंदन बन जाया करते हैं ।
संघर्ष एक विशाल महासागर गहरा,
जिसमे हम खुद को डूबाया करते हैं।
डूब कर इस सागर मे,
हम मोती चुन लाया करते हैं ।
संघर्ष एक राह कांटो की,
जिसमे हम खुद को चलाया करते हैं।
चल कर इस राह मे,
हम मंजिल को पा जाया करते हैं ।

Thursday, October 14, 2010

अहसास

वक़्त की सख्त मार ने,
हालत कुछ इस तरह बदल दिए,
नर्म अहसास सीने के,
अब पत्थर बन कर रह गए।
हर गाँव, हर शहर की फिजाओं मे,
हवाएं घुली हुई हैं दुनियादारी की,
मतलब नहीं रहा जब किसी से तो,
मुंह फेर कर सब चल दिए।
नर्म अहसास सीने के,
अब पत्थर बन कर रह गए ।
इंसान को मशीन बनाने के,
कारखाने खुले हुए हैं बहुत यहाँ ,
नज़रे उठा कर जहाँ भी देखो,
हर जगह बेजान ढाँचे चल रहे।
नर्म अहसास सीने के,
अब पत्थर बन कर रह गए ।

Monday, September 27, 2010

कॉमनवेल्थ गेम्स

कॉमनवेल्थ गेम्स की देखो,
क्या दुर्दशा हो रही है।

कभी पुल गिर रहे है,
कही छत टपक रही है,
तो कही सड़के धस रही है।
कॉमनवेल्थ गेम्स की देखो,
क्या दुर्दशा हो रही है।

कलमाड़ी की कार्य-कुशलता की,
कलई जो खुल गयी है।
फिर भी ऊँगली उठा कर वो अपनी,
दुसरो के दोष गिना रहे है ।
कॉमनवेल्थ गेम्स की देखो,
क्या दुर्दशा हो रही है।

पर्याप्त समय मिला था हमको,
पर देखो क्या तैयारिया हो रही है,
बद-इंतजामी की हर हद , अब पार हो रही है।
कॉमनवेल्थ गेम्स की देखो,
क्या दुर्दशा हो रही है।

हर जगह हमारे देश की,
थू -थू अब हो रही है ।
अगर आजाते होश मे पहले ही,
फजीहत न होती,जो अब हो रही है।
कॉमनवेल्थ गेम्स की देखो,
क्या दुर्दशा हो रही है।

Tuesday, September 14, 2010

वो बादल

खयालो की भाप से बने,
उमंगो और आशाओ के बादल।
ख्वाबो के आसमान में ठहरकर,
बरसेंगे खुशियों की बरसात बनकर ।

Friday, September 3, 2010

सरकारी नीतियां

कागजों पर ही शुरू होती हैं,
कागजों पर ही ख़त्म होती हैं ।
सरकारी नीतियां इसी तरह,
बनती और बिगडती हैं ।
होके फाईलो मे कैद,
रास्ता अपना खोजती हैं ।
सरकारी नीतियां इसी तरह,
बनती और बिगडती हैं ।
भूली बिसरी बात बनकर,
वक़्त की गर्त मे दबी रहती हैं।
सरकारी नीतियां इसी तरह,
बनती और बिगडती हैं ।
फिर दम तोड़ देती हैं एक दिन,
इतिहास बनके रहा करती हैं ।
सरकारी नीतियां इसी तरह,
बनती और बिगडती हैं।
कागजों पर ही शुरू होती हैं,
कागजों पर ही ख़त्म होती हैं।
सरकारी नीतियां इसी तरह,
बनती और बिगडती हैं ।

Wednesday, August 25, 2010

अनजानी होती राहे

राहे थी जो पहचानी, अब अनजानी हो रही हैं।
मुझसे मेरी ही ज़मी , अब बेगानी हो रही हैं।
अपनों की बदगुमानी का, आलम हैं कुछ इस तरह।
चेहरे को मेरे देख,इन्हें अब हैरानी हो रही हैं ।
बन गया हूँ मुसाफिर, एक भटके हुए सफ़र का ।
राहे जिंदगानी की, इस कदर क्यूँ वीरानी हो रही हैं ।

Saturday, August 14, 2010

आज़ादी का जश्न

आज़ादी का जश्न मनाते हो।
क्या सच मे जश्न मनाने की बात है ?

कही जलता है चूल्हा,कही होता है फाका।
अनाज चाहे पड़ा सड़ता रहे,
दाने -दाने को तरसता है इन्सान।
फिर भी हम नारे लगाते है,
'मेरा भारत महान'।
आज़ादी का जश्न मनाते हो।
क्या सच मे जश्न मनाने की बात है?

कोई रहता आलिशान मकान मे।
कोई तंगहाल बस्ती मे।
आसमान के तले कोई बसाता अपना जहां।
फिर भी हम नारे लगाते है,
'मेरा भारत महान'।
आज़ादी का जश्न मनाते हो।
क्या सच मे जश्न मनाने की बात है ?

ताकतवर अयोग्य पाते है ऊंचा मुकाम।
योग्य आम आदमी रह जाता है मूंह ताक ।
बेरोज़गारी के इस आलम की क्या कहे बात।
फिर भी हम नारे लगाते हे,
'मेरा भारत महान'।
आज़ादी का जश्न मनाते हो,
क्या सच मे जश्न मनाने की बात हे?

कही बिजली की चकाचोंध ।
कही टिम-टिम करती जलती लालटेन ।
तो कही दिन और रात होते हे एक समान ।
फिर भी हम नारे लगाते हे,
'मेरा भारत महान'।
आज़ादी का जश्न मनाते हो।
क्या सच मे जश्न मनाने की बात हे ?

घूसखोरी,भ्रष्टाचार,बेईमानी का दीमक,
इन्सान को अब रहा खा ।
कहाँ करे जनता अब अपनी फरियाद ।
फिर भी हम नारे लगाते हे ,
'मेरा भारत महान'।
आज़ादी का जश्न मनाते हो।
क्या सच मे जश्न मनाने की बात हे?






Tuesday, August 10, 2010

लिख -लिख कर अहसास अपने,
मैं मिटा दिया करती हूँ ।
दिल की इस स्लेट पर से,
सारे ख्वाब हटा दिया करती हूँ ।
आंसूओ से फिर धो कर इसे,
हकीकत की हवा मैं सूखा दिया करती हूँ ।

Tuesday, August 3, 2010

काश्मीर

जन्नत कहलाने वाले चमन की हालत तो देखिये,
जहाँ जिंदगी बसती थी वहां सन्नाटा तो देखिये ।
यार वो कभी जो अपनी यारी का दम भरते थे,

आज इस कदर वहशी हो गए हैं
हाथो मे लेकर के खंजर,
अपने ही खून के प्यासे हो गए हैं।
जहाँ जहाँ भी नजरे जाती हैं,
बर्बादी के साए नजर आते हैं ।
और अपने ही लोग मुझे,
जाने अब क्यूँ पराये नज़र आते हैं ।

Tuesday, July 20, 2010

मेरा मेरा करते हो,यहाँ कुछ भी तो अपना नहीं।
यह शरीर किराये का ढांचा है, और साँसे है उधार की ।

सब कुछ पाकर भी,न जाने क्या पाने की होड़ लगी है ।
बुझती नहीं है जो कभी,यह कैसी प्यास जगी है।
इस मृगतृष्णा का, हर कोई बना दीवाना है ।
यह शरीर किराए का ढांचा है, और साँसे है उधार की ।


दो गज ज़मी के नीचे ही,हमको दफन हो जाना है।
राख बन इस देह को, अब मिटटी मे मिल जाना है।
सब कुछ जानकार भी,इन्सान क्यूँ बना बेगाना है।
यह शरीर किराए का ढांचा है, और साँसे है उधार की।

मेरा मेरा करते हो, यहाँ कुछ भी तो अपना नहीं।
यह शरीर किराए का ढांचा है,और साँसे है उधार की ।

Friday, July 9, 2010

बचपन की गलियाँ .

बचपन की गलियों से हर कोई गुजरता है,
खुबसूरत इन राहों मे हर कोई विचरता है ।
जैसे -जैसे उम्र बढती चली जाती है,
यथार्थ की दुनिया मे हमें लिए जाती है।
अब तो बचपन ख्वाबो -ख्यालों मे बसा है,
यादों की किताबो मे इन लम्हों को संजोया है ।

Thursday, July 1, 2010

नौकरी की तलाश .

राह मे एक नौजवा से मुलाक़ात हो गयी,
बातो बातो मे उसकी कहानी पता चल गयी।
कहानी कोई नयी नहीं वही पुरानी ही थी,
उस नौजवा को एक अदद नौकरी की तलाश थी ।
आँखों मे चमक उसके दिल मे तमन्नाए हज़ार थी,
अपनी काबिलियत पर उसे नौकरी मिलने की आस थी ।
नौकरी की तलाश मे वो जहाँ -जहाँ जाता,
तारीफ़ अपनी काबिलियत की वो हर जगह पाता ।
पर अंत मे उससे एक ही सवाल पूछा जाता,
क्या किसी की सिफारिश है आपके पास ।
इसी तरह नौकरी की तलाश मे दिन बीतने लगे ,
पहले हफ्ते,महीने, फिर बरस बीत गए ।
अब वो नौजवा अखबार बेचने का काम कर रहा है,
और आज भी अपने लिए नौकरी की तलाश कर रहा है।

Friday, June 25, 2010

मन का पंछी .

मन का पंछी विचारो की भूल -भूलैया मे,
सदा यू ही भटका फिरा ।
रिवाजो की बंदिशों मे ही,
अपने आप को जकड़ा रहा।
लाख पंख फडफड़ाये तो भी,
रास्ता नहीं कोई सूझ रहा।
समझोते की दीवार को ले,
ख़ामोशी से टिका रहा ।

Wednesday, June 23, 2010

बरखा का मौसम .

गर -गर -गर -गर बदरा गरजे ।
चम-चम -चम -चम बिजुरिया चमके।
सन -सन -सन -सन चले हवा ।
रिमझिम -रिमझिम पड़े फुहार ।
पपीहे ने मचाया शोर ।
मोर नाचे भाव -विभोर ।
प्यासी धरती ने प्यास बुझाई ।
चारो तरफ हरियाली छाई
खिल उठे सबके तन-मन ।
आया जो ये बरखा का मौसम ।

Friday, June 18, 2010

जीते जी ना किया तुमने हमारा मान,
जाने के बाद हमारे देने आये हो सम्मान।
श्रद्धा के फूल चढ़ा कर कहते हो,
वो थे एक महान इंसान।
आखिर मरने के बाद इन्सान,
क्यों हो जाता है मूल्यवान।

Thursday, June 10, 2010

जिंदगी क्या है ...

जिंदगी क्या है ......इसका वर्णन हर कोई अपने हिसाब से करता है । मैंने भी अपने तरीके से जिंदगी का वर्णन किया है।

जिंदगी पटरी है ,साँसों के पहियों पर दौड़ती,
लम्हों की रेल है।

जिंदगी दरिया है,साँसों की लहरों पर चलती,
लम्हों की कश्ती है।

जिंदगी जमीन है,साँसों की नीव पर बसी,
लम्हों का आशिया है।

जिंदगी किताब है, साँसों की कलम से लिखी,
लम्हों की दास्ताँ है।

जिंदगी संगीत है, साँसों के स्वरों से सजी,
लम्हों का गीत है।

जिंदगी रंगशाला है,साँसों के इशारों पर रचित,
लम्हों का खेल है।

जिंदगी एक बाग़ है, साँसों की खुशबु से महकी,
लम्हों के फूल है।

Wednesday, June 2, 2010

यह कौन है आईने मैं
यह किसका अक्स है।
किसी अनजाने अपरिचित
इंसान की शक्ल है।
वक़्त की ऐसी चली आंधी
सारा नज़ारा बदल गया।
इंसान अपने आप को
पहचानने से डर गया।

Monday, May 24, 2010

एक ख्वाहिश [कविता ]

ख्वाहिश हे मेरी, बेफिक्र,बैखोफ होके घर से निकलू मैं ।
ना मंडराए साए, हम पे आतंकी हमलो के ॥
ख्वाहिश हे मेरी, देश के नेता, काम करे समझदारी से ।
ना बांटे देश को, भाषा, धर्म, जाति के नाम पे ॥
ख्वाहिश हे मेरी, बच्चो के कंधो से किताबो का बोझ कम हो ।
अब तो शिक्षा प्रणाली, हमारी दुरुस्त हो ॥
ख्वाहिश हे मेरी, ना बहे आंसू बढती चीजों के दाम से ।
अब तो रोक लगे, हद पार करती महंगाई पे ॥
ख्वाहिश हे मेरी, निहारु सितारों भरा आसमान मैं ।
ना कैद करो इसे, धुल और धुए की चादर मे ॥
ख्वाहिश हे मेरी, चारो और अमन और चैन की बंसी बजे ।
आओ सब मिलकर, एकता की लय को मजबूत करे ॥

Monday, May 17, 2010

जो पतिदेव कहे [एक व्यंग गीत ]

यह व्यंग गीत, उन पतियों के नाम हे, जो अपने को बहुत कुछ और अपनी पत्नियों को कुछ समझते ही नहीं हे, हर वक़्त उनकी तानाशाही चलती रहती हे । इस गीत को मैंने " ॐ जय जगदीश हरे " आरती की तर्ज़ पर लिखा हे । उम्मीद करती हूँ,शायद आप को पसंद आये ।

जो पतिदेव कहे ......
तर्ज़ [ॐ जय जगदीश हरे ]

जो पतिदेव कहे, पतिदेव जो कहे ,
हर आज्ञा का पालन, हर आज्ञा का पालन,
पत्नी चुप-चाप करे।
जो पतिदेव कहे ..........

अर्धांगिनी का अर्थ, जो जान के भी ना जाने,
जो जान के भी ना जाने ।
बात -बात पर ताने, बात-बात पर ताने।
सीना छलनी करे॥
जो पतिदेव कहे ......
घुन और नारी दोनों, सिक्के के दो रूप,
अजी सिक्के के दो रूप ।
दो पाटो बीच पीसना, दो पाटो बीच पीसना।
नारी का जीवन ॥
जो पतिदेव कहे ......
पढ़ी लिखी शहरी , चाहे गाँव की हो गोरी,
चाहे गाँव की हो गोरी।
सदिया चाहे बदले, सदिया चाहे बदले ।
व्यथा वही पुरानी॥
जो पतिदेव कहे .......
हज़ारो मे होगी कोई, ऐसी किस्मतवाली,
हां ऐसी किस्मतवाली ।
जिसको पति माने, जिसको पति माने ।
सच्चा जीवन-साथी ॥
जो पतिदेव कहे, पतिदेव जो कहे ,
हर आज्ञा का पालन, हर आज्ञा का पालन ।
पत्नी चुप -चाप करे ॥

Tuesday, May 11, 2010

देश, राजनीति, राजनेता [कविता]

जहाँ धर्म के नाम पर उठता हे बवंडर।
जहाँ जात -पात के नाम पर होता हे अंतर।
ऐसी जगह को कहते हे लोकतंत्र ॥

शासन हे एक ऐसे आसन का नाम ।
अनीति का होता जहाँ निरंतर अभ्यास ।
ऐसे योगासन को मिलता हे राजनीति का नाम ॥

शब्दों का जो रचते हे मायाजाल ।
मीठी छुरी से जो जनता को करते हे हलाल ।
ऐसे अभिनेता को दिया जाता हे राजनेता का नाम ॥

Saturday, May 8, 2010

रिश्ते [कविता]

रिश्तो की राह मे बेरुखी का सफ़र।
कब तक चले हम कहाँ है मंजिल॥
गिरगिट को भी इंसान कर रहे है मात ।
हर पल बदलते रंगों की दे रहे है सौगात ॥
जाने क्यूँ मन मायूसी से घिरा जाता है ।
रिश्तो पर से विश्वास अब उठता चला जाता है ॥

Sunday, May 2, 2010




हेल्लो दोस्तों


कैसे हो? आज मैंने एक free hand drawing बनाई|fill it with your colors and share it! :) देखते हम सब किस किस रंग में सोचते है|

Wednesday, April 28, 2010

राम और खुदा [कविता ]



बेगुन्हा लाशों को कंधे पर डाले ।
चले है राम और खुदा उन्हें दफनाने ॥

मंदिर , मस्जिद आशियाँ हुआ करते थे ।
आज भटक रहे है वीरानो में ॥

दिल से निकाल फेंका है लोगों ने हमको ।
अब तो हम उनके नारों में रहा करते है ॥

नफरत की इस आंधी के थपेड़ो मे ।
अपने अस्तित्व का अंश ढूँढ़ते नज़र आते है ॥

Thursday, March 25, 2010

नींद और सुकून. [कविता ]

पलके बोझिल है ,
आँखों मे नींद नहीं ।
नींद आये भी कैसे ,
दिल में जो सुकून नहीं ।
सुकून मिले भी क्यूँ ,
क्यूंकि हर-पल संघर्ष है ।
संघर्ष भला कैसे छोड़े ,
आखिर जीवन एक दौड़ है ।
दौड़ मे रहना है आगे ,
चूँकि पाने कई मुकाम है ।
मुकाम पा भी लिए अगर ,
तो अडिग रहने का प्रयत्न है ।
प्रयत्न सफल हो जाए ,
जद्दोजहद है साँसों की डोर से ।
साँसों की डोर टूट जाए ,
तो नींद और सुकून है ।

किसी के पास आज -कल वक़्त बचा ही कहाँ है , जो यह सोचे की हमें क्या चाहिए , क्यूँ हम दौड़ रहे है । जिन्दगी बड़ी छोटी है कुछ पल अपने लिए और अपनों के लिए निकाले । मैंने इस अहसास को अलफ़ाज़ देने की एक छोटी सी कोशिश की है । आप लोगो को मेरा यह प्रयास कैसा लगा बताईयेगा

Friday, February 26, 2010

एक कहानी[कड़ी ५

नीम वाली छत पे अक्सर सन्नो अपनी सहेली के साथ अष्टा -चंगा यह खेल खूब खेलती थी । आज भी वो इसी नीम वाली छत पर अपनी सहेली शान्ति के साथ इसी खेल को खेलने मे व्यस्त हैं । छत पर गिरती नीम की शाखाओं के नीचे बैठकर खेलने की बात ही कुछ और है । नीम के पेड़ से गुजरती हुई ठंडी -ठंडी हवाएं, और नीम की छाँव मे, खेलते हुए समय का होश कहाँ रहता हैं ।

ठक,ठक करती हुई जब नानी की छड़ी की आवाज कानो मे पड़ी । तभी ध्यान आया की नानी ने तो उसे पंडितजी के यहाँ कल की पूजा के लिए बुलावा देने के लिए भेजा था । ''अरे ! तू यहाँ क्या कर रही है छोरी " नानी ने कहा । नानी को अपने सामने पाकर , एक बार को वोह घबरा गयी । "नानी मे अभी जाकर पंडितजी को बुलावा दे आती हूँ" उसने कहा । अपनी सहेली का हाथ थामे उसे भी पंडितजी के यहाँ ले गयी । "यह छोरी खेल मे इतनी बावली हो जावे की किसी बात का ध्यान ही ना रहवे " मन ही मन बुदबुदाते हुए नानी वापिस सीढियां उतरने लगी ।

सुबह से ही बड़ी चहल - पहल है । रसोई मे स्वादिष्ट पकवान बन रहे है । छत पर पड़ी चारपाई पर लेटी -लेटी अपने सपनो की दुनिया मे खोयी सन्नो को जैसे ही पकवान की खुशबू नाक मे पड़ी दौड़कर वो रसोई -घर के सामने जा खड़ी हुई , और चहकते हुए उसने नानी से पुछा -" नानी कौन मेहमान आने वाला है , जो इतनी सारी बढ़िया खाने की चीजे बना रही हो "। नानी ने होले से मुस्कुरा कर कहा -"आज तेरे नानाजी का श्राद्ध है , इसीलिए तो कल पंडितजी के बुलावा भेजा था "। आज नानी के चेहरे की झुरियां और अधिक गहरी नज़र आ रही थी , और चेहरे पर उदासी की एक हल्की परत नज़र आ रही थी । नानी का चेहरा आज इतना उतरा हुआ क्यूँ है ? यह सवाल बार -बार वो अपने आप से पूछ रही थी । नानी बोली - पंडितजी आते ही होंगे जा जल्दी स्नान करके आजा । क्रमश

Saturday, February 13, 2010

शिवरात्रि

ब्लॉगर की दुनिया के दोस्तों को महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाए । वैसे मैं एक दिन देर से शुभकामनाए दे रही हु , मैं घर पर नहीं थी। तो देर से ही सही शुभकामनाए स्वीकार करे । दो साल पहले मैंने भगवान् शिव पर एक छोटा सा भजन लिखा था। जो अब तक मेरी डायरी के पन्नो तक ही सिमित था। आज आप सभी के साथ बांटना चाहती हु।


जय शिव शंकर
जीवन सार्थक करे शिव का नाम ।
शिव चरण बिन कहाँ विश्राम ॥
जीवन सार्थक ....
हर -हर महादेव नाम का कर स्नान ।
शिव चरण बिन कहाँ विश्राम ॥
जीवन सार्थक ....

डमरू की डम डम में शम्भो नाम ।
शिव चरण बिन कहाँ विश्राम ॥
जीवन सार्थक ....

गंगा की धार बोले शंकर नाम ।
शिव चरण बिन कहाँ विश्राम ॥
जीवन सार्थक ...
तुम्ही गुरु तुम्ही परमपिता ।
शिव चरण बिन कहाँ विश्राम ॥
जीवन सार्थक ....
ओंकार नाम से गूंजे सारा संसार ।
शिव चरण बिन कहाँ विश्राम ॥
जीवन सार्थक ....
तीन लोक में तेरी जय -जयकार ।
शिव चरण बिन कहाँ विश्राम॥
जीवन सार्थक करे शिव का नाम
शिव चरण बिन कहाँ विश्राम ॥

Thursday, February 11, 2010

एक कहानी [कड़ी ४ ]

रात के आठ बज रहे थे । नानी और माँ रसोई में थी। दरवाजे पर दस्तक हुई । नानी ने कहा -लगता हे ओंकार आगया दूकान से । ओंकार गुगी के मामाजी ,जिनसे नानी की लाडली डरा करती थी । जब मामाजी घर में दाखिल हुए, तो वोह गलियारे में बैठी ठंडी -ठंडी हवा का आनंद ले रही थी । दिन चाहे कितने ही गर्म रहे , लेकिन राते ठंडी रहती है यहाँ की । माँ ने आवाज लगायी - सन्नो आ बेटा ,नीचे आ , आके मामा के हाथ -पैर धुलवा । सन्नो जी हाँ यही तो उसका नाम है , इसी नाम से वह अपने ननिहाल में और अपने दादा दादी के यहाँ जानी जाती है । सन्नो आज बहुत थकी हुई हे , बन्दर महाराज ने आज उससे इतनी दौड़ -धुप करवा दी की अब उससे एक कदम भी न चला जाएगा । माँ आवाज लगाती रही ,पर उसने सुना-अनसुना कर दिया और बैठे -बैठे आकाश में टिमटिमाते हुए तारो को गिनने लगी । अचानक एक कर्कश -कठोर आवाज उसके कानो को चीरती हुए उसे अन्दर तक हिला गयी । उसका बदन डर से काँप रहा था । यह तो ओंकार मामाजी की आवाज थी । सन्नो नीचे आ , आखिर सन्नो को अपना मन मारकर नीचे जाना ही पड़ा ।
क्या करती रहती है सारा दिन, कभी कुछ काम भी कर लिया कर । मामाजी ने सन्नो को देखते ही पहला सवाल यही किया । नानी और माँ दोनों चुपचाप एक कोने में खडी सन्नो को देख रही थी । सन्नो ने मुड़कर दोनों की तरफ देखा पर नानी और माँ भी मामाजी के आगे कुछ नहीं बोल पाती थी । खड़े -खड़े क्या देख रही है चल मेरे हाथ पैर धुलवा । अपने आँख में आंसू को छुपाती हुई,मामा के पैर धुलवाने के लिए जल बाल्टी में भरने लगी । जाते - जाते मामाजी एक और फरमान सुना गए - सन्नो से बोलो मेरे लिए दो जवार की रोटी बना कर रखे में कपडे बदल कर आता हु । नानी बोली - बेटा में बना देती हूँ । लेकिन मामाजी की जिद के आगे किसी की नहीं चलती । आखिरकार सन्नो को रोटी बनानी ही पड़ी । उसे कहा कुछ बनाना आता था । पर जैसे -तैसे उसने रोटिया बनायीं । रोटिया बनाते वक़्त हाथो की उंगलियाँ गरम तवे से चीठ गयी । जब सब का खाना हो गया और सारा रसोई का काम सलट गया तो माँ उसे कमरे में ले गयी और उसकी जली उँगलियों पर मलहम लगाई । माँ की गोद में सर रखकर वह सो गयी

Wednesday, February 10, 2010

एक कहानी [कड़ी ३ ]

जब जब छुटियाँ होती थी नानी के यहाँ आने की अनुभूति कुछ और ही होती थी । गर्मी की एक दुपहर मे वोह अपनी नानी के साथ उनके कमरे मे थी । नानी उसके बालो मे तेल लगा रही थी । नानी ने कहा - तेरे इतने अच्छे केश हैं तेल लगाया कर , नहीं तो छोटी उम्रर मे मेरी तरह बाल सफ़ेद हो जायेंगे । उसने कहा - अरे वाह नानी तब तो बड़ा मजा आएगा मेरे बाल भी तुम्हारी तरह चांदी की तरह चमकीले हो जायेंगे । कमरे मे बैठी नानी, उसकी माँ सब हँसने लगे । सबको हँसते देखकर वोह भी खिलखिलाकर हँस पड़ी । उसकी हँसी चारो और गूंज उठी । माँ उसको हँसता देख भगवान् से बस एक ही प्रार्थना करती की ,हे ईश्वर मेरी बेटी सदा युही मुस्कुराती रहे । अचानक हुए शोर से उसकी माँ एकदम चौंक पड़ी । सब एक बन्दर को भागने की कोशिश कर रहे थे । कभी वो बन्दर नानी के कपाट पर चढ़ जाता तो कभी कमरे के एक कोने में टंगे हुए झूले पर चढ़ जाता और मजे से उस पर झूलने लगता । नानी ने एक डंडा उठाया और लगी बन्दर को भगाने । बन्दर महाराज खी-खी करते हुए नानी को चिढा रहे थे। आखिर बहुत कोशिशो के बाद बन्दर को भगाया गया । लेकिन जाते - जाते बन्दर नानी का प्यारा आईना ले गया ,जो एक चांदी की फ्रेम में जड़ा हुआ था नानी को इस बात का दुःख था की यह उनके पति की उनको आखरी भेंट थी । उसके थोड़े दिनों बाद ही उनका स्वर्गवास हो गया था । शाम ढलने लगी थी सूरज की लालिमा से आसमान सजने लगा था । नानी कमरे में बिखरे सामन को समेटने लगी

Tuesday, February 2, 2010

एक khwahish

एक कहानी [कड़ी २ ]

बैलगाड़ी धीरे धीरे पहुंच रही थी अपनी मंजिल की और । उसका मन यह तय नहीं कर पा रहा था की पहुचते ही उसे क्या करना है । क्या वोह झट से नानी के गले लगे या दौड़कर छत पर जाए और कच्ची -पक्की इमली खाए । दिल एक ख्वाहिश अनेक । आखिर नानी की हवेली आ गयी । वोह झट से बैलगाड़ी से कूदी ,और सब से पहले नानी के लिपट गयी । नानी ने बड़े प्यार से उसके सर पर हाथ फेरा और बोली -"आ गयी मेरी गुगी "। गुगी उसका नाम नहीं था , वहा के लोग प्यार से इसी तरह से अपनी बच्चियों को पुकारते थे ।
अगले दिन मंदिर जाना था क्यूंकि उस दिन पूर्णिमा थी और वोह पूर्णिमा का व्रत करती थी । नानी और माँ के साथ वोह मंदिर जाने के लिए तैयार हो रही थी । मंदिर काली सिंध नदी के किनारे स्थित था । मंदिर पहुंच कर भगवान् के दर्शन किये और पूजा अर्चना की । उसने मंदिर की खिड़की से झाँक कर देखा खिड़की से कालीसिंध का नज़ारा देखते ही बनता था । नदी का वेग बहुत तेज था लगता था मानो सब कुछ नदी के तेज वेग में समा जायेगा। नानी के मुंह से सुना था कई साल पहले कालीसिंध नदी मैं से सोने का हाथ निकलता था और वहां के रजा उस हाथ की पूजा करते थे । पूजा होने के बाद हाथ वापिस नदी के अन्दर चला जाता था । उसका मुहँ आश्चर्य से खुला रह जाता वोह पूछती -"क्या सच मैं नानी तुमने उस सोने के हाथ को देखा हैं ?"। नानी ने कहा -"अरे मैंने नहीं देखा मैंने तो लोगोके मुहँ से सुना है "।
नानी ने आज बहुत स्वादिष्ट भोजन बनाया क्यूंकि आज उनकी गुगी ने व्रत जो रखा था । उसने पेट भर खाया । नानी उसकी मनुहार कर रही थी। नानी को लग रहा था उनकी गुगी का पेट भरा नहीं है । उसकी थाली मैं और भोजन परोस रही थी । उसने कहा -"आपको खिलाना है तो वोह चीज खिलाओ "। उसने एक ऐसी चीज का नाम बताया जो नानी ने बनाया ही नहीं था । उसने इस लिए ऐसी चीज का नाम बोला था ताकि और खाना खाने से पीछा छुट सके । पर नानी कहाँ हार मानने वाली थे उन्होंने उसकी फरमाइश पूरी की । लेकिन यह उसका बहाना था । उसे कुछ खाना तो था नहीं । वोह थाली से उठ गयी और बहार अपनी सहेलियों के साथ खेलने चली गयी । नानी इधर उसको पुकारती रह गयी ।

Friday, January 29, 2010

इंतज़ार

मैंने जो" एक कहानी " की शुरुआत की है , उसका अगला भाग ,आप लोग अगले हफ्ते पढ़ पायेंगे । तो निराश मत होइए और अगली कड़ी का इंतज़ार करिए ।

Thursday, January 28, 2010

टेलीविजन की दुनिया उफ़ यह हंगामे

शुरुआत में हमारे पास मनोरंजन का एकमात्र साधन था और वो था दिल्ली दूरदर्शन से प्रसारित होने वाले कार्यक्राम । उस वक़्त कोई और विकल्प भी नहीं था , तो , वो ही हमारे मनोरंजन का सहारा बना।
धीरे -धीरे समय बदला और देश में मनोरंजन के क्षेत्र में नयी क्रान्ति आयी । दौर आया प्राइवेट चैनलों का । जिसकी शुरुआत हुई जी टी वी से , उसके बाद तो जैसे सैलाब ही उमड़ पड़ा हो प्राइवेट चैनलों का, इंटरटेनमेंट चैनल हो या फिर न्यूज़ चैनल । हमारे मनोरंजन का दायरा बढ़ता गया । पहले फिल्मे और धारावाहिक दिखाये जाने लगे , बाद में रिअलिटी शो भी आने लगे । रिअलिटी शो के साथ शुरू हुए हंगामे। इन सब चीजो से उस समय मैं बड़ी अनजान थी ।
इसका सबसे पहला अनुभव मेरा सन १९९३ मैं हुआ । जी टी वी पर एक परिचर्चा पर आधारित कार्यक्रम की शुरुआत हुई जिसका नाम था ' चक्रव्यूह ' और इस कार्यक्रम का संचालन जाने -माने पत्रकार विनोद दुआ जी करते थे ।
एक बार डॉक्टरस के उपर एक परिचर्चा रखी गयी । पैनल पर चार पांच मेहमानों को बुलाया गया था , जिसमे से एक प्रसिद्ध हृदयरोग विशेषज्ञ थे जो एक जाने माने बॉलीवुड अभिनेता चंकी पांडे के पिताजी भी थे । परिचर्चा की शुरुआत तो शांत तरीके से हुई ,धीरे -धीरे परिचर्चा का दौर आगे बढ़ता गया ,स्टूडियो मैं बैठे श्रोतागण अपने विचार बता रहे थे । ज्यादातर श्रोताओ के अनुभव डॉक्टर के प्रति मधुर नहीं थे । लोगो के अनुभव सुनकर वो बॉलीवुड अभिनेता के पिताजी नाराज़ हो गए ,चेहरा क्रोध से लाल हो गया । आगे तो वो किसी की सुनना ही नहीं चाहते थे. और इस विवाद मैं उनका भरपूर साथ दिया पैनल मैं बैठे एक और मेहमान जो अहमदाबाद से आये थे । दोनों ने मिलकर माहौल को इतना गरमा दिया की बीच मैं ही कार्यक्रम को रोकना पड़ा । और वो दोनों मेहमान चिल्लाते हुए कार्यक्रम छोड़कर चले गए । आज वोह हृदयरोग विशेषज्ञ डॉक्टर इस दुनिया मैं नहीं है । भगवान् उनकी आत्मा को शान्ति प्रदान करे । अब तो टेलीवीजन की दुनिया में यह नज़ारे देखना आम बात हो गयी है । म्यूजिक शो सा रे गा मा पा में शुरुआत हुई थी संगीत के विश्व युद्ध की प्रथम ,द्वितीय शायद तृतीय भी हुआ था । मैंने तो संगीत का प्रथम विश्व युद्ध देखा सच पूछो तो प्रतियोगियों का आपस मैं युद्ध नहीं था , पर उन प्रतियोगियों ,को जो जज करने आये संगीत के क्षेत्र के महारथियों का आपस में जरुर वाद -विवाद होता रहता था , तमाशा ही तमाशा होता रहता था । और किसी रिअलिटी शो में प्रतियोगी रो -रो कर आंसुओ का समंदर तैयार कर देते हे । जिसको देखकर मैं यही कह सकती हु "यह कैसा ईमोशनल अत्याचार है"। खुदा बचाए ऐसे टेलीविजन की दुनिया से और उफ़ यह हंगामे से ।

Wednesday, January 27, 2010

एक कहानी

यह कहानी है राजस्थान मैं बसे,एक छोटे से गाँव गंधार की । बात बहुत पुरानी है ,पर सच्ची है ,जिसके बारे मैं बताने जा रही हूँ उसका इस जगह से संबंद्ध है । यह जगह उसकी ननिहाल थी , अपनी माँ के साथ हमेशा छुटीयों मैं आती थी । ,नानी के यहाँ जाना है यह सुनते ही वह ख़ुशी से उछल पड़ती थी । अब जरा उसकी नानी के घर के बारे मैं जान ले । नानी का घर एक बहुत बड़ी हवेली थी जिसका आकर अंग्रेजी के एल आकर जैसा था ,जिसका एक हिस्सा पक्का था और दूसरा काची माटी का था । जो हीस्सा कच्चा था उसके पिछवाड़े एक इमली का पैड था जिसकी शाखाएं उस हिस्से की गच्ची तक फ़ैली हुई थी । उस गच्ची पर बारिश के कारण जो काई जमती थी उस पर मखमली घास उग आती थी। सीमेंट की एक बेंच भी थी। जब बच्चे पकड़ा -पकड़ी खेलते हुए थक जाते थे ,तब इसी सीमेंट की बेंच पर बैठकर अपनी थकान उतारते थे । हवेली जहाँ स्थित थी उस सड़क का नाम मन -मोगरा था गाँव के रास्ते छोटे -छोटे पत्थरों से बने थे ।
आज फिर वोह अपनी नानी के यहाँ जा रही है । स्टेशन पर उतरकर बैलगाड़ी का इन्तजार हो रहा है । जब तक की बैलगाड़ी आये, पास ही एक मंदिर है जहाँ पर भगवान् के दरशन किया जा रहा है । मंदिर के आहाते मैं बहुत सारे मौसंबी के वृक्ष है । लो बैलगाडी आगई । गंधार पहुचने के लिए दो रास्ते हैं एक तो बैलगाड़ी का दूसरा नाव का जो कालीसिंध नदी को पार कर के जाना पड़ता है । पर अब सांझ हो गयी है , इसलिए बैलगाड़ी से जाना ही सुरक्षित है । वोह बैठ गयी है बैलगाड़ी मैं अपनी नानी से मिलने को है बेकरार । चली जा रही है गाडी उचे -नीचे रास्ते से होते हुए अपनी मंजिल तक ।

बचपन की गलियां

बचपन की गलियों से हर कोई गुजरता है । खुबसूरत राहो मैं हर कोई विचरता है । जैसे -जैसे उमर बढती चली जाती है। यथार्थ की दुनिया मैं हमे लिए जाती है । अब तो बचपन खवाबो -खयालो मैं बसा है । सुनहरी किताब मैं इन लम्हों को संजोया है ।

Thursday, January 21, 2010

बेवकूफी या नादानी

वैसे तो हम अपनी जिन्दगी मैं हर पल ऐसे कुछ काम कर जाते हैं, जिसे बाद मैं सोचकर हमें बरबस हंसी आ जाती हैं । बात तब की हैं जब मैं चौथी कक्षा की छात्रा थी । हमारी कक्षा मैं विनायक नाम का लड़का पढता था जिसे अपने पिताजी के ओहदे का बड़ा गुमान था । हर वक़्त वोह अपनी मनमर्जी करता था कोई भी उससे कुछ ना कहता था । हमारी अध्यापिका को कीसी विशेष काम से एक दिन कक्षा से बाहर जाना पड़ा,तो कक्षा का मोनिटर विनायक को बनाया । मौका मिलने की देरी थी विनायक ने फिर अपनी मनमर्जी शुरू करदी उसने कहा कोई भी न बोलेगा और न ही हिलेगा सब ऐसे बैठो जैसे की एक मूर्ति बैठी हो । मैं भी कुछ देर तक उसके बताये तरीके से बैठी रही । बैठे -बैठे मुझे दर्द होने लगा क्यूंकि मुझे पोलियो हैं मेरे पुरे शारीर पर पोलियो का असर हैं ,तो मैं थोडा हिल गयी । उसने देख लिया और उसने आकर मेरे सर पर रुलर से मारा । मैंने कुछ नहीं बोला जब मम्मी मुझे लेने आई तब स्कूल छुटने मैं पांच दस मिनट की देरी थी मम्मी ने अध्यापिका जी से इजाजत लेकर मुझे स्कूल से ले गयी जब मम्मी मुझे लेकर स्कूल के गेट तक पहुंची तो मैंने उनको सब बात बताई । मम्मी ने बोला तू ने मुझे पहले क्यूँ नहीं बताया । मम्मी तुरंत कक्षा मैं लौटी हमको वापिस कक्षा मैं आया देख विनायक के चेहरे के भाव बदल गए उसे अपनी बात के पकडे जाने का भय था । मम्मी ने जब टीचर को सारी बात बतायी तो टीचर ने विनायक से पुछा तो विनायक ने फट से सारा इलज़ाम दुसरे लड़के आशीष पर लगा दिया । टीचर ने बेचारे आशीष को मुर्गा बना दिया , और मैं चुचाप उसको मुर्गा बना देखती रही और मम्मी के साथ घर लौट आई । आज भी इस बात को याद करती हूँ तो अपनी बेवकूफी पर हंसी भी आती हैं और अफसोस भी होता है

Friday, January 15, 2010

सूर्य grahan

आज सबसे बड़ा सूर्यग्रहण है । मैं अभी सूर्य ग्रहण के ख़त्म होने का इंतज़ार कर रही हूँ । आज मेरी माँ ने हमारी कामवाली को घर के अंदर नहीं आने दिया । खुद ने ही घर का सब काम कर लिया , मैंने माँ को बोला अरे कामवाली को तो आने दो ,तो माँ बोलती है वोह ग्रहण शुरू होने पर आई है स्नान किया नहीं है कैसे आने दू । आज माँ ने सुबह से कुछ नहीं खाया अब ग्रहण के शुद्ध होने पर ही खायेंगी ,बाकी घर के लोगो को ग्रहण शुरू होने से पहले खिला दिया । लोग कब तक ऐसे अन्धविश्वाश पर कायम रहेंगे । वैसे माँ पूरी तरह से रुढ़िवादी नहीं है, हां पर कभी -कभी उनके ऊपर ऐसे पुरानी मान्यता यदा कदा हावी हो जाती है । जमाना आगे बढ़ चूका है नयी उपलब्धिया को हमने प्राप्त किया है
मेरी मासी तो बहुत ज्यादा ही रुदिवादी है । उन्होंने तो सूर्यग्रहण की पिछली रात ग्यारह बजे के बाद से लेकर सूर्यग्रहण के ख़त्म होने के तीन चार घंटे बाद भी कुछ नहीं खाया जिसकी वजह से उन्हें एसिडिटी हो गयी और बहुत उल्टिया शुरू हो गयी
कितनी भी तबियत खराब हो जाये मेरी मासी आपनी सोच बदल नहीं सकती । इसके लिए मैं एक ही कहावत कह सकती हूँ । भैंस के आगे बीन बजने से क्या फायदा ।