Tuesday, February 2, 2010

एक कहानी [कड़ी २ ]

बैलगाड़ी धीरे धीरे पहुंच रही थी अपनी मंजिल की और । उसका मन यह तय नहीं कर पा रहा था की पहुचते ही उसे क्या करना है । क्या वोह झट से नानी के गले लगे या दौड़कर छत पर जाए और कच्ची -पक्की इमली खाए । दिल एक ख्वाहिश अनेक । आखिर नानी की हवेली आ गयी । वोह झट से बैलगाड़ी से कूदी ,और सब से पहले नानी के लिपट गयी । नानी ने बड़े प्यार से उसके सर पर हाथ फेरा और बोली -"आ गयी मेरी गुगी "। गुगी उसका नाम नहीं था , वहा के लोग प्यार से इसी तरह से अपनी बच्चियों को पुकारते थे ।
अगले दिन मंदिर जाना था क्यूंकि उस दिन पूर्णिमा थी और वोह पूर्णिमा का व्रत करती थी । नानी और माँ के साथ वोह मंदिर जाने के लिए तैयार हो रही थी । मंदिर काली सिंध नदी के किनारे स्थित था । मंदिर पहुंच कर भगवान् के दर्शन किये और पूजा अर्चना की । उसने मंदिर की खिड़की से झाँक कर देखा खिड़की से कालीसिंध का नज़ारा देखते ही बनता था । नदी का वेग बहुत तेज था लगता था मानो सब कुछ नदी के तेज वेग में समा जायेगा। नानी के मुंह से सुना था कई साल पहले कालीसिंध नदी मैं से सोने का हाथ निकलता था और वहां के रजा उस हाथ की पूजा करते थे । पूजा होने के बाद हाथ वापिस नदी के अन्दर चला जाता था । उसका मुहँ आश्चर्य से खुला रह जाता वोह पूछती -"क्या सच मैं नानी तुमने उस सोने के हाथ को देखा हैं ?"। नानी ने कहा -"अरे मैंने नहीं देखा मैंने तो लोगोके मुहँ से सुना है "।
नानी ने आज बहुत स्वादिष्ट भोजन बनाया क्यूंकि आज उनकी गुगी ने व्रत जो रखा था । उसने पेट भर खाया । नानी उसकी मनुहार कर रही थी। नानी को लग रहा था उनकी गुगी का पेट भरा नहीं है । उसकी थाली मैं और भोजन परोस रही थी । उसने कहा -"आपको खिलाना है तो वोह चीज खिलाओ "। उसने एक ऐसी चीज का नाम बताया जो नानी ने बनाया ही नहीं था । उसने इस लिए ऐसी चीज का नाम बोला था ताकि और खाना खाने से पीछा छुट सके । पर नानी कहाँ हार मानने वाली थे उन्होंने उसकी फरमाइश पूरी की । लेकिन यह उसका बहाना था । उसे कुछ खाना तो था नहीं । वोह थाली से उठ गयी और बहार अपनी सहेलियों के साथ खेलने चली गयी । नानी इधर उसको पुकारती रह गयी ।

No comments:

Post a Comment