वक़्त की सख्त मार ने,
हालत कुछ इस तरह बदल दिए,
नर्म अहसास सीने के,
अब पत्थर बन कर रह गए।
हर गाँव, हर शहर की फिजाओं मे,
हवाएं घुली हुई हैं दुनियादारी की,
मतलब नहीं रहा जब किसी से तो,
मुंह फेर कर सब चल दिए।
नर्म अहसास सीने के,
अब पत्थर बन कर रह गए ।
इंसान को मशीन बनाने के,
कारखाने खुले हुए हैं बहुत यहाँ ,
नज़रे उठा कर जहाँ भी देखो,
हर जगह बेजान ढाँचे चल रहे।
नर्म अहसास सीने के,
अब पत्थर बन कर रह गए ।
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bahoot hi khubsurat rachna.
ReplyDeletekabhi bhatakte hue ehsas par bhi nazar dale.
सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ शानदार रचना लिखा है आपने! बधाई!
ReplyDeleteनर्म अहसास सीने के,
ReplyDeleteअब पत्थर बन कर रह गए ।.....
bahut sundar !
अति सुंदर रचना सुंदर भावो से सजी, ओर आप की बिल्ली मोसी से भी मिल कर आये हे, बहुत सुदर लगा आप का वो लेख भी, ऎसी ही ओर लिखे, धन्यवाद
ReplyDeleteआप का ब्लांग मित्र लिस्ट मे नोट कर लिया हे
बहुत ही मार्मिक कविता। यह मशीनी समाज हर सुंदर चीज को खुद जैसा मशीन ही बना देना चाहता है, पर कवि का अनुराग कविता के शब्द बन ही जाता है।
ReplyDeleteइस सब के बीच धनतेरस और दिवाली की बहुत बहुत बधाई। खूब पटाखे छोडिए और खूब सारी मिठाइयां खाईए। :)
हां यह भी ठीक ही है, इन पटाखों को बनाने में न जाने कितने बच्चे अपंग हो जाते हैं या मारे जाते हैं, धुआं और शोर कष्ट भी देता है।
ReplyDeleteआपको एवं आपके परिवार को दिवाली की हार्दिक शुभकामनायें!
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