Monday, September 27, 2010

कॉमनवेल्थ गेम्स

कॉमनवेल्थ गेम्स की देखो,
क्या दुर्दशा हो रही है।

कभी पुल गिर रहे है,
कही छत टपक रही है,
तो कही सड़के धस रही है।
कॉमनवेल्थ गेम्स की देखो,
क्या दुर्दशा हो रही है।

कलमाड़ी की कार्य-कुशलता की,
कलई जो खुल गयी है।
फिर भी ऊँगली उठा कर वो अपनी,
दुसरो के दोष गिना रहे है ।
कॉमनवेल्थ गेम्स की देखो,
क्या दुर्दशा हो रही है।

पर्याप्त समय मिला था हमको,
पर देखो क्या तैयारिया हो रही है,
बद-इंतजामी की हर हद , अब पार हो रही है।
कॉमनवेल्थ गेम्स की देखो,
क्या दुर्दशा हो रही है।

हर जगह हमारे देश की,
थू -थू अब हो रही है ।
अगर आजाते होश मे पहले ही,
फजीहत न होती,जो अब हो रही है।
कॉमनवेल्थ गेम्स की देखो,
क्या दुर्दशा हो रही है।

6 comments:

  1. सही मुद्दे को लेकर आपने बखूबी शब्दों में पिरोया है! बहुत सुन्दरता से आपने सच्चाई को बयान किया है! सही में कॉमनवेल्थ गेम्स के बारे में इतनी सारी घटनाएँ हो रही है जिससे हमारा देश बदनाम हो रहा है और गंदगी के बारे में खुले आम अखबार में तस्वीर दी जा रही है! न जाने कलमाड़ी ने इस तरह का आयोजन क्यूँ किया जिसमें कुछ भी ढंग का नहीं है!रोजाना अख़बार में पढने को मिलता है की कभी पुल गिर पड़ी तो कभी सांप घुस पड़ा कमरे में!

    ReplyDelete
  2. sahi samay par sahi charcha...
    bahut hi sachhayi ke saath aapne likha hai shital ji...bahut achha laga padhkar.


    "अगर आजाते होश मे पहले ही,
    फजीहत न होती,जो अब हो रही है।"

    ReplyDelete
  3. हर जगह हमारे देश की,
    थू -थू अब हो रही है ।
    अगर आजाते होश मे पहले ही,
    फजीहत न होती,जो अब हो रही है।
    कॉमनवेल्थ गेम्स की देखो,
    क्या दुर्दशा हो रही है।
    ...........बहुत अच्छा लिखा है आपने...
    यही तो रोना है वक्त रहते एक होकर जाग जाते तो क्यों ताकतबर होते हुए भी सदियों गुलाम नहीं होते ...
    खैर अब तो यही दुआ है कि सबकुछ शुभ शुभ और अच्छे से खेल आयोजन सफल हो जाय .. अब आगे कोई व्यवधान न आये ... बस यही शुभ कामना है ...

    ReplyDelete
  4. kitni sari aalochano k baad bharat ne in khelo ka shandar dhang se udghatan karne ke baad ye dikha diya hai hm kitni badi takat hai...........

    ReplyDelete
  5. कॉमनवैल्थ की तो जो दुर्दशा होनी थी हो गई। दुर्दशा तो हम दिल्ली वालों की हो रही है। रोजमर्रे की चीजों के दाम आसमान छू रहे हैं,जब तब सडकें बंद कर दी जाती हैं, बहुत सी महत्वपूर्ण बसें बंद हैं, मेट्रो का सहारा जरूर है लेकिन वो भी अब देर से पंहुचाती है। डियू के जिन हॉस्टलों से लडकों को पिछले दिनो विदेशी मेहमानों को ठहराने का हवाला देकर बाहर कर दिया गया था, वो अब भी खाली ही पडे हैं, लगता है इनकी अव्यवस्था से घबरा कर मेहमान दिल्ली आए ही नहीं।
    कविता का विषय, और विचार बेहद पसंद आए, प्रस्तुति को कुछ और अलंकृत जरूर किया जा सकता है।

    ReplyDelete