Thursday, October 14, 2010

अहसास

वक़्त की सख्त मार ने,
हालत कुछ इस तरह बदल दिए,
नर्म अहसास सीने के,
अब पत्थर बन कर रह गए।
हर गाँव, हर शहर की फिजाओं मे,
हवाएं घुली हुई हैं दुनियादारी की,
मतलब नहीं रहा जब किसी से तो,
मुंह फेर कर सब चल दिए।
नर्म अहसास सीने के,
अब पत्थर बन कर रह गए ।
इंसान को मशीन बनाने के,
कारखाने खुले हुए हैं बहुत यहाँ ,
नज़रे उठा कर जहाँ भी देखो,
हर जगह बेजान ढाँचे चल रहे।
नर्म अहसास सीने के,
अब पत्थर बन कर रह गए ।

7 comments:

  1. bahoot hi khubsurat rachna.
    kabhi bhatakte hue ehsas par bhi nazar dale.

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  2. सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ शानदार रचना लिखा है आपने! बधाई!

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  3. नर्म अहसास सीने के,
    अब पत्थर बन कर रह गए ।.....
    bahut sundar !

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  4. अति सुंदर रचना सुंदर भावो से सजी, ओर आप की बिल्ली मोसी से भी मिल कर आये हे, बहुत सुदर लगा आप का वो लेख भी, ऎसी ही ओर लिखे, धन्यवाद
    आप का ब्लांग मित्र लिस्ट मे नोट कर लिया हे

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  5. बहुत ही मार्मिक कविता। यह मशीनी समाज हर सुंदर चीज को खुद जैसा मशीन ही बना देना चाहता है, पर कवि का अनुराग कविता के शब्द बन ही जाता है।
    इस सब के बीच धनतेरस और दिवाली की बहुत बहुत बधाई। खूब पटाखे छोडिए और खूब सारी मिठाइयां खाईए। :)

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  6. हां यह भी ठीक ही है, इन पटाखों को बनाने में न जाने कितने बच्चे अपंग हो जाते हैं या मारे जाते हैं, धुआं और शोर कष्ट भी देता है।

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  7. आपको एवं आपके परिवार को दिवाली की हार्दिक शुभकामनायें!

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