Wednesday, August 25, 2010

अनजानी होती राहे

राहे थी जो पहचानी, अब अनजानी हो रही हैं।
मुझसे मेरी ही ज़मी , अब बेगानी हो रही हैं।
अपनों की बदगुमानी का, आलम हैं कुछ इस तरह।
चेहरे को मेरे देख,इन्हें अब हैरानी हो रही हैं ।
बन गया हूँ मुसाफिर, एक भटके हुए सफ़र का ।
राहे जिंदगानी की, इस कदर क्यूँ वीरानी हो रही हैं ।

6 comments:

  1. अपनों की बदगुमानी का, आलम हैं कुछ इस तरह।
    चेहरे को मेरे देख,इन्हें अब हैरानी हो रही हैं ।

    very nice and lively creation

    ReplyDelete
  2. बन गया हूँ मुसाफिर, एक भटके हुए सफ़र का ।
    राहे जिंदगानी की, इस कदर क्यूँ वीरानी हो रही हैं ।
    वाह बहुत खूब! बहुत ही सुन्दर और शानदार रचना!

    ReplyDelete
  3. टाइटल तो दिया होता,वैसे अच्छी रचना

    ReplyDelete
  4. शीतल जी...

    जो भी लिखा है तुमने, सुन्दर लगा है हमको...
    जीवन जटिल हो चाहे, जीना पड़ेगा सबको...
    बेशक कोई जो साथी, कल तक रहे हों संग में..
    वो आज न हों साथी, न वो भले ही संग में....
    कोई गैर मानता गर, अपना भी कोई होगा....
    मन में कोई अपना सा, सपना भी कोई होगा...
    सपना ही ले के कोई, जीवन में चलते जाना...
    जो भी परिस्थिति हो, सबको उसे निभाना....

    जो भी परिस्थिति हो, सबको उसे निभाना....

    सुन्दर पंक्तियाँ.....

    दीपक....

    ReplyDelete