राहे थी जो पहचानी, अब अनजानी हो रही हैं।
मुझसे मेरी ही ज़मी , अब बेगानी हो रही हैं।
अपनों की बदगुमानी का, आलम हैं कुछ इस तरह।
चेहरे को मेरे देख,इन्हें अब हैरानी हो रही हैं ।
बन गया हूँ मुसाफिर, एक भटके हुए सफ़र का ।
राहे जिंदगानी की, इस कदर क्यूँ वीरानी हो रही हैं ।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
अपनों की बदगुमानी का, आलम हैं कुछ इस तरह।
ReplyDeleteचेहरे को मेरे देख,इन्हें अब हैरानी हो रही हैं ।
very nice and lively creation
bahut hi khoobsurat ...
ReplyDeleteA Silent Silence : tanha marne ki bhi himmat nahi
Banned Area News : Man with knife breaks into Paris Hilton's home
बन गया हूँ मुसाफिर, एक भटके हुए सफ़र का ।
ReplyDeleteराहे जिंदगानी की, इस कदर क्यूँ वीरानी हो रही हैं ।
वाह बहुत खूब! बहुत ही सुन्दर और शानदार रचना!
wah! kitna sundar..
ReplyDeleteटाइटल तो दिया होता,वैसे अच्छी रचना
ReplyDeleteशीतल जी...
ReplyDeleteजो भी लिखा है तुमने, सुन्दर लगा है हमको...
जीवन जटिल हो चाहे, जीना पड़ेगा सबको...
बेशक कोई जो साथी, कल तक रहे हों संग में..
वो आज न हों साथी, न वो भले ही संग में....
कोई गैर मानता गर, अपना भी कोई होगा....
मन में कोई अपना सा, सपना भी कोई होगा...
सपना ही ले के कोई, जीवन में चलते जाना...
जो भी परिस्थिति हो, सबको उसे निभाना....
जो भी परिस्थिति हो, सबको उसे निभाना....
सुन्दर पंक्तियाँ.....
दीपक....