मेरा मेरा करते हो,यहाँ कुछ भी तो अपना नहीं।
यह शरीर किराये का ढांचा है, और साँसे है उधार की ।
सब कुछ पाकर भी,न जाने क्या पाने की होड़ लगी है ।
बुझती नहीं है जो कभी,यह कैसी प्यास जगी है।
इस मृगतृष्णा का, हर कोई बना दीवाना है ।
यह शरीर किराए का ढांचा है, और साँसे है उधार की ।
दो गज ज़मी के नीचे ही,हमको दफन हो जाना है।
राख बन इस देह को, अब मिटटी मे मिल जाना है।
सब कुछ जानकार भी,इन्सान क्यूँ बना बेगाना है।
यह शरीर किराए का ढांचा है, और साँसे है उधार की।
मेरा मेरा करते हो, यहाँ कुछ भी तो अपना नहीं।
यह शरीर किराए का ढांचा है,और साँसे है उधार की ।
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बहुत सुन्दर और मार्मिक कविता है
ReplyDeleteज़िंदगी का अंतिम सत्य बताती अच्छी रचना
ReplyDeleteयथार्थ बोध कराती एक सशक्त रचना।
ReplyDelete... बहुत खूब !!!
ReplyDeleteमेरा मेरा करते हो,यहाँ कुछ भी तो अपना नहीं।
ReplyDeleteयह शरीर किराये का ढांचा है, और साँसे है उधार की ...
bahut shandar rachna.is satya ko log apnaye aur bariki se jaan le to insaan vastav mein insaan jaisa ho jayega....bahut achha post hai shital ji.
gaurtalab par aapke comments padhne ke baad bahut utsahit huya ..thanks
वाह! क्या बात है! बहुत सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ उम्दा रचना लिखा है आपने!
ReplyDeleteशीतल जी
ReplyDeleteआपके यहां आ'कर हृदय शीतल हो गया …
अच्छी कविताएं हैं आपकी ।
… बस , छंद को चुना है तो इसे निरंतर साधती रहें …
श्रेष्ठ रचनाएं पढ़ते रहने से श्रेष्ठ लिखने का मार्ग सुगम हो जाता है ।
शस्वरं पर भी आपका सादर हार्दिक स्वागत है , अवश्य आइए…
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं
...gurtalab par aakar mera utsah badhane ke liye bahut-bahut shukriya
ReplyDeleteमित्रता दिवस की हार्दिक बधाइयाँ एवं शुभकामनाएँ!
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