यह कहानी है राजस्थान मैं बसे,एक छोटे से गाँव गंधार की । बात बहुत पुरानी है ,पर सच्ची है ,जिसके बारे मैं बताने जा रही हूँ उसका इस जगह से संबंद्ध है । यह जगह उसकी ननिहाल थी , अपनी माँ के साथ हमेशा छुटीयों मैं आती थी । ,नानी के यहाँ जाना है यह सुनते ही वह ख़ुशी से उछल पड़ती थी । अब जरा उसकी नानी के घर के बारे मैं जान ले । नानी का घर एक बहुत बड़ी हवेली थी जिसका आकर अंग्रेजी के एल आकर जैसा था ,जिसका एक हिस्सा पक्का था और दूसरा काची माटी का था । जो हीस्सा कच्चा था उसके पिछवाड़े एक इमली का पैड था जिसकी शाखाएं उस हिस्से की गच्ची तक फ़ैली हुई थी । उस गच्ची पर बारिश के कारण जो काई जमती थी उस पर मखमली घास उग आती थी। सीमेंट की एक बेंच भी थी। जब बच्चे पकड़ा -पकड़ी खेलते हुए थक जाते थे ,तब इसी सीमेंट की बेंच पर बैठकर अपनी थकान उतारते थे । हवेली जहाँ स्थित थी उस सड़क का नाम मन -मोगरा था गाँव के रास्ते छोटे -छोटे पत्थरों से बने थे ।
आज फिर वोह अपनी नानी के यहाँ जा रही है । स्टेशन पर उतरकर बैलगाड़ी का इन्तजार हो रहा है । जब तक की बैलगाड़ी आये, पास ही एक मंदिर है जहाँ पर भगवान् के दरशन किया जा रहा है । मंदिर के आहाते मैं बहुत सारे मौसंबी के वृक्ष है । लो बैलगाडी आगई । गंधार पहुचने के लिए दो रास्ते हैं एक तो बैलगाड़ी का दूसरा नाव का जो कालीसिंध नदी को पार कर के जाना पड़ता है । पर अब सांझ हो गयी है , इसलिए बैलगाड़ी से जाना ही सुरक्षित है । वोह बैठ गयी है बैलगाड़ी मैं अपनी नानी से मिलने को है बेकरार । चली जा रही है गाडी उचे -नीचे रास्ते से होते हुए अपनी मंजिल तक ।
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कुछ ऐसी अनुभूति हुई आपकी यह कहानी पढ़कर मानो मैं किसी किताबों की भीड़ के बीच से एक रोचक उपन्यास उठाकर उसके पीछे के कवर पर लिखा इंट्रो पढ़ रहा हूँ, इस कहानी को और विस्तृत रूप में पढने की इच्छा हो रही है, अगर समय मिले तो इसे विस्तार देने की कोशिश कीजिएगा| हालांकि विस्तार से कहानियाँ लिखने में खुद ऊब जाता हूँ, लेकिन रोचक और जिन्दगी से जुडी चीजों में कुछ काल्पनिक विस्तार हो तो वो इनसे उपजी कहानियों को निखार देता है...
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