Wednesday, August 25, 2010

अनजानी होती राहे

राहे थी जो पहचानी, अब अनजानी हो रही हैं।
मुझसे मेरी ही ज़मी , अब बेगानी हो रही हैं।
अपनों की बदगुमानी का, आलम हैं कुछ इस तरह।
चेहरे को मेरे देख,इन्हें अब हैरानी हो रही हैं ।
बन गया हूँ मुसाफिर, एक भटके हुए सफ़र का ।
राहे जिंदगानी की, इस कदर क्यूँ वीरानी हो रही हैं ।

Saturday, August 14, 2010

आज़ादी का जश्न

आज़ादी का जश्न मनाते हो।
क्या सच मे जश्न मनाने की बात है ?

कही जलता है चूल्हा,कही होता है फाका।
अनाज चाहे पड़ा सड़ता रहे,
दाने -दाने को तरसता है इन्सान।
फिर भी हम नारे लगाते है,
'मेरा भारत महान'।
आज़ादी का जश्न मनाते हो।
क्या सच मे जश्न मनाने की बात है?

कोई रहता आलिशान मकान मे।
कोई तंगहाल बस्ती मे।
आसमान के तले कोई बसाता अपना जहां।
फिर भी हम नारे लगाते है,
'मेरा भारत महान'।
आज़ादी का जश्न मनाते हो।
क्या सच मे जश्न मनाने की बात है ?

ताकतवर अयोग्य पाते है ऊंचा मुकाम।
योग्य आम आदमी रह जाता है मूंह ताक ।
बेरोज़गारी के इस आलम की क्या कहे बात।
फिर भी हम नारे लगाते हे,
'मेरा भारत महान'।
आज़ादी का जश्न मनाते हो,
क्या सच मे जश्न मनाने की बात हे?

कही बिजली की चकाचोंध ।
कही टिम-टिम करती जलती लालटेन ।
तो कही दिन और रात होते हे एक समान ।
फिर भी हम नारे लगाते हे,
'मेरा भारत महान'।
आज़ादी का जश्न मनाते हो।
क्या सच मे जश्न मनाने की बात हे ?

घूसखोरी,भ्रष्टाचार,बेईमानी का दीमक,
इन्सान को अब रहा खा ।
कहाँ करे जनता अब अपनी फरियाद ।
फिर भी हम नारे लगाते हे ,
'मेरा भारत महान'।
आज़ादी का जश्न मनाते हो।
क्या सच मे जश्न मनाने की बात हे?






Tuesday, August 10, 2010

लिख -लिख कर अहसास अपने,
मैं मिटा दिया करती हूँ ।
दिल की इस स्लेट पर से,
सारे ख्वाब हटा दिया करती हूँ ।
आंसूओ से फिर धो कर इसे,
हकीकत की हवा मैं सूखा दिया करती हूँ ।

Tuesday, August 3, 2010

काश्मीर

जन्नत कहलाने वाले चमन की हालत तो देखिये,
जहाँ जिंदगी बसती थी वहां सन्नाटा तो देखिये ।
यार वो कभी जो अपनी यारी का दम भरते थे,

आज इस कदर वहशी हो गए हैं
हाथो मे लेकर के खंजर,
अपने ही खून के प्यासे हो गए हैं।
जहाँ जहाँ भी नजरे जाती हैं,
बर्बादी के साए नजर आते हैं ।
और अपने ही लोग मुझे,
जाने अब क्यूँ पराये नज़र आते हैं ।